शिक्षित और सभ्य समाज में सामाजिक परिवर्तन एक नई क्रांति

समस्त समाज के सभी महानुभावों एवं बुद्धिजीवियों का एक महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान आकर्षित करवाना चाहूंगी जो कि अत्यंत चिंतनीय एवं विचारणीय है। जो केवल एक या दो परिवार की ही नहीं शनै शनै समस्त समाज की गंभीर समस्या बनती जा रही है।आजकल हर एक समाज की युवा पीढ़ी समाज के नियमों और सामाजिक बंधनों का उल्लंघन करते हुए अंतर्जातीय विवाह की ओर आकर्षित होती जा रही हैं। इसकी वजह है हम अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के साथ ही केवल विवाह जैसे बड़े निर्णय को छोड़कर अन्य सभी व्यक्तिगत निर्णय लेने की मानसिक स्वतंत्रता भी प्रदान कर रहे हैं और यह जरूरी भी है ताकि बच्चे आत्मनिर्भर बने उनका मनोबल मजबूत हो निर्णय शक्ति प्रबल हो और वे सही और गलत में फर्क महसूस कर अपनी सोच और समझ बढ़ा सकें । आजकल की युवा पीढ़ी शिक्षित एंव स्वतंत्र है। इनमें अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने एवं समाज में नए बदलाव का एक जुनून सा छाया है। इसकी ठोस और आंतरिक वजह है समाज की कुरीतियां एवं खोखले सामाजिक बंधन। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार, समाज का नकारात्मक वातावरण। हम अपने बच्चों को उच्च शिक्षा तो प्रदान कर रहे हैं किंतु हम अपनी सोच और वातावरण को बदलने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। शिक्षा को व्यवहार में नहीं लाया जा रहा है।भारत के कई समाजों में आज भी महिलाओं की स्थितियां अत्यंत ही दयनीय और निंदनीय है। कई शिक्षित एवं सभ्य परिवारों की शिक्षित एवं आत्मनिर्भर महिलाएं भी अत्यंत निराशा एवं कुंठा में जी रही है।वे आत्मनिर्भर होते हुए भी आर्थिक रूप से वे पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर नहीं है। उनके आर्थिक अधिकार उनके पास नहीं है । अतः महिलाएं मानसिक अवसाद से ग्रसित होती जा रही है। आज भी इन समाजों में महिलाओं को घर परिवार या समाज के बाहृय या आंतरिक महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदारी नहीं दी जा रही है। इन्हें सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से बोलने का अधिकार नहीं दिया जाता है जो कि सर्वथा गलत है।

आज की युवा पीढ़ी इसे अच्छी तरह समझ कर महसूस कर रही है और इसमें पूर्णतया बदलाव चाहती है। जैसे कि बहुओं पर होने वाले मानसिक एवं शारीरिक अत्याचार, पर्दा प्रथा,दहेज प्रथा एवं विधवा विवाह या परित्यक्ता का पुनर्विवाह ना होना, मदिरापान और भी कहीं निंदनीय कुरीतियां आज भी भारत के कई समाजों में विद्यमान है, और इसका सीधा-सीधा प्रभाव आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर पड़ रहा है। युवा सामाजिक बंधनों एवं नियमों का खंडन करते हुए अन्य समाजों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। युवाओं की सोच बदलती जा रही है ‌ जिन जाति, समाज के सामाजिक बंधन व नियम सरल व सुलभ है एवं महिलाओं की स्थितियां अच्छी है उसी ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ता जा रहा है ।और इसका खामियाजा परिवार को उठाना पड़ता है।इसी वजह से कई परिवार और समाज टूटते जा रहे हैं।

बच्चे अपनी स्वेच्छा से अंतर्जातीय विवाह करते हैं। और उसका कुप्रभाव उनके माता पिता एवं परिवार पर पड़ रहा है। सभी माता-पिता एवं परिवार यही चाहते है कि समाज में उनका मान और प्रतिष्ठा कायम रहे इसीलिए वे अपने बच्चों को हर तरह से समझाने का प्रयत्न करते हैं उन पर दबाव बनाते हैं किंतु न मानने पर बच्चे अपना निर्णय स्वयं ले लेते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सामाजिक बंधनों एवं पाबंदियों के भय से माता-पिता एवं परिवार अपने बच्चों का साथ छोड़ देते है। माता-पिता पर समाज में आने जाने पर पाबंदियां लगाई जाती है। इसी भय के कारण माता पिता अपने बच्चों का साथ नहीं दे पाते हैं और विवाह जैसे जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय में उन्हें अकेला छोड़ देते हैं जो कि बच्चों के भविष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। माता-पिता अपनी भावनाओं एवं अरमानों का हनन कर देते है जो कि सर्वथा गलत और अन्याय है। समाज को माता-पिता की मजबूरियों को समझना होगा।

अतः ऐसे में अपने सामाजिक नियमों में परिवर्तन करने की अत्यंत आवश्यकता है

सर्वप्रथम हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमें अपने समाज में जो भी कुरीतियां है इन्हें खत्म करना होगा माता- पिता के लिए सामाजिक नियमों में लचीलापन लाना होगा। अपनी सोच को बदलना होगा सोच में विशालता का समावेश करना होगा। जातिगत ऊंच-नीच की भावना को निकालने की अत्यंत आवश्यकता है।एक ही जाति या समाज को किसी क्षेत्रवाद में ना बांधकर राष्ट्रीय स्तर तक रखा जाए ताकि माता पिता और परिवार के लिए अपने बच्चों के विवाह के लिए युवक युवती का चुनाव करना सरल हो जाए। और यदि फिर भी युवक-युवतियां समाज से बाहर विवाह करें तो उसका दंड उनके माता-पिता या परिवार को ना दिया जाए। कोई भी माता-पिता या परिवार यह कभी नहीं चाहता कि अपने समाज में उनकी प्रतिष्ठा गिरे या वे समाज से निष्कासित हो। माता पिता एवं परिवार एक सीमा तक ही बच्चों पर नियंत्रण या दबाव बना सकते हैं। नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है किंतु एक तय सीमा में ही किया जा सकता है अन्यथा विनाश का कारण बन जाता है। अतः यहां हमें सामाजिक नियमों में बदलाव लाते हुए माता पिता की भावनाओं और मजबूरियों को समझना समाज की नैतिक जिम्मेदारी है। उन्हें अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों और कर्तव्य निर्वहन के लिए स्वतंत्र किया जाए , उनकी विडंबना को समझा जाए ताकि माता-पिता की भावनाएं आहत ना हो उनके मन में अपने बच्चों के भविष्य को लेकर भय ना सताए। भविष्य में बच्चों के साथ कुछ भी ऊंच-नीच ना हो उसके लिए वे उन्हें सुरक्षित कर सके। युवा पीढ़ी का मानना है कि समाज के नियम सभी पर समान रूप से लगाए जाए ना कि समर्थ या असमर्थ के साथ भेदभाव किया जाए। इन्हीं भेदभाव के कारण युवा पीढ़ी की मानसिकता पर गहरा असर पड़ता जा रहा है और आंतरिक रुप से वे दिन-ब-दिन इन सामाजिक बंधनों एवं अन्याय का विरोध करते जा रहे हैं।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और एक सीमा में परिवर्तन होना अत्यंत आवश्यक है। यही समय की मांग भी है

स्त्रियों की स्थितियों में सुधार किया जाए । उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाए, शिक्षा में पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए, एक सीमा में आर्थिक स्वतंत्रता दी जाए। घर परिवार एवं समाज का वातावरण अत्यंत सकारात्मक हो। घर-परिवार एवं समाज के महत्वपूर्ण निर्णयों में महिलाओं की भागीदारी की जाए और उन्हें अपने विचार प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी जाए। उन पर लगी सभी कुरीतियों को हटाया जाए। मैं सभी का ध्यान केंद्रित करना चाहूंगी की नारी ही प्रकृति की निर्मात्री है उसी में संसार की समस्त शक्तियां विद्यमान हैं। जिन परिवारों, समाजों एवं राष्ट्रों की स्त्रियां शिक्षित और आत्मनिर्भर है वे ही परिवार,समाज एवं राष्ट्र प्रगति करते है। किसी भी समस्या का उत्पन्न होना या उसका समाधान स्त्री द्वारा ही होता है। यदि नारियों की स्थिति में सुधार किया जाए, परिवार में बहू और बेटी में भेदभाव ना किया जाए,समाज के कड़े नियमों में थोड़ा बदलाव किया जाए, घर परिवार का वातावरण पूर्णतया सौहार्दपूर्ण एवं सकारात्मक बनाया जाए,तो परिवार एवं समाज कई हद तक टूटने से बच जाएंगे। और समाज दिन-ब-दिन सुदृढ़ और एकीकृत बनेंगे।आज की शिक्षित एवं स्वतंत्र युवा पीढ़ी की मानसिकता जो दिन-ब-दिन बदलती जा रही है उस पर कई हद तक नियंत्रण किया जा सकेगा।

शिक्षित युवा पीढ़ी से मैं निवेदन करूंगी कि गंदगी को साफ करने के लिए गंदगी से दूर नहीं भागे बल्कि गंदगी में उतर कर ही उसे साफ करने का प्रयत्न करें। अतः समाज में रहकर ही सामाजिक परिवर्तन की क्रांति द्वारा हम समाज की बुराइयों और कुरीतियों को दूर कर सकते हैं। अपने सतत प्रयासों से समाज में सकारात्मक सोच और सकारात्मक वातावरण तैयार किया जा सकता है। ताकि समाज सुदृढ़, संगठित एवं सुव्यवस्थित हो सके।

डॉ. प्रतिभा जवड़ा
मनोविज्ञानी एवं सामाजिक कार्यकर्ता
लेखिका एवं कवियित्री
राजस्थान

Exit mobile version