स्त्री केवल देह ही नहीं एक मन भी है, सपने देखने का और उन्हें पूरे करने का

मैं आए दिन स्त्रियों की मनोदशा सुनती हूं।उनकी समस्याओं को सुनकर मन बड़ा विचलित हो जाता है। आज मैं उसी मनोदशा का वर्णन अपने कुछ शब्दों में करने का प्रयत्न कर रही हूं। साथ ही मेरी अंतिम विनती पर भी प्रकाश डालें। स्त्री और पुरुष का प्रेम अत्यंत पवित्र और पूजनीय होता है। लेकिन स्त्री और पुरुष के प्रेम में बहुत बड़ा अंतर होता है। स्त्री हमेशा आत्मिक प्रेम करती है और पुरुष शारीरिक। स्त्री एक पुरुष को मन कर्म और वचन से पूर्णरूपेण समर्पण भाव से अपनाती है। वहीं पुरुष केवल कर्म से अपनाता है।

एक स्त्री प्रथम दृष्टया कभी किसी से प्रेम नहीं करती है। ना ही किसी पर भरोसा करती है। उसी के विपरीत एक पुरुष स्त्री के रंग रूप के आकर्षण में स्त्री से प्रेम कर लेता है। और उस स्त्री को पाने के लिए वो सारे जतन करता है ताकि वो उस स्त्री के मन को आकर्षित कर सके। जैसे ही पुरुष एक स्त्री को पूर्णरूपेण पा लेता है तत्पश्चात पुरुष का उस स्त्री के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। और वहीं से स्त्री का प्रेम और समर्पण प्रारंभ होता है। जहां पुरुष के सारे जतन समाप्त होते हैं । पुरुष स्त्री को पाते ही ,अपने पद प्रतिष्ठा और पैसा कमाने मैं व्यस्त हो जाता है। वहीं स्त्री अपना सब कुछ त्याग कर पुरुष के प्रति समर्पित होकर अपने सपनों को चकनाचूर कर देती है ।

वहीं से स्त्री की परीक्षाएं प्रारंभ हो जाती हैं। वो उस पुरुष को प्रसन्न रखने के लिए हर एक प्रयत्न करती है। जहां से पुरुष अहंकारी बनता है वहीं से एक स्त्री अपने अहंकार को त्याग कर उस पुरुष के लिए त्याग, बलिदान,करुणा, दया, क्षमा सहनशक्ति और प्रेम की प्रतिमूर्ति बन जाती है। पुरुष को प्रसन्न रखने के लिए वह सारे जतन करती है जो कि कभी-कभी उसकी प्रसन्नता और आत्म सम्मान के विपरीत भी होते हैं। किंतु स्त्री,पुरुष और उसके परिवार की प्रसन्नता के लिए अपना मान -सम्मान अपनी खुशियां, अपनी स्वतंत्रता, सब कुछ त्याग कर पुरुष के अहंकार की पुष्टि करती है। और यह प्रक्रिया स्त्री के साथ सतत चलती रहती है।इसी तरह धीरे-धीरे एक स्त्री अपना आत्मविश्वास खो देती है । स्त्री स्वयं को भी भूल जाती है।

स्त्री, पुरुष के प्रेमवश उसके अवगुणों के साथ पुरुष को अपनाती है और अपना पूर्ण प्रयत्न करती है कि पुरुष के उन अवगुणों को दूर करें और उसका साथ निभाते हुए उसके परिवार की मान मर्यादा को बनाए रखने पूर्ण प्रयत्न करती है। एक स्त्री प्रियतमा के साथ साथ मां, बहन ,बेटी तो कभी गुरु बनकर ज्ञान देती है तो कभी मित्र,भाई और पिता के सारे चरित्र अपनाती है। पुरुष स्त्री के प्रति जितना लापरवाह हो जाता है बदले में स्त्री दिन-ब-दिन उसकी, और अधिक परवाह करने लगती है।हर एक सुख -दु:ख में पुरुष का साथ देती है। स्त्री ढाल बनकर सदैव पुरुष की रक्षा करती है। वह अपने सुख-दु:ख का त्याग कर पुरुष के सुख-दु:ख को बड़ी सहजता से अपना लेती है।

स्वयं को पूर्ण रूप से पुरुष और उसके परिवार के साथ स्वयं को समायोजित करने का हर संभव प्रयत्न करती है। अपने सारे सपनों और इच्छाओं का दमन कर लेती है।उस रिश्ते को निभाने के लिए एक स्त्री अपना पूरा जीवन खुशी खुशी समर्पित कर देती है। और इस तरह स्त्री और पुरुष का रिश्ता का ताउम्र चलता रहता है जोकि पूर्णरूपेण एक तरफा होता है। स्त्री की क्षमता पुरुष से कई गुना अधिक है किंतु एक स्त्री पुरुष और उसके परिवार की प्रसन्नता और मान सम्मान के लिए अपनी क्षमताओं और खुशियों का दमन कर देती है।

इस प्रकार पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की स्वतंत्रता और उसके सारे अधिकारों को उससे बड़ी चतुराई से छीन लिया जाता है। गाहे-बगाहे स्त्री का जीवन भर हनन होता है। और स्त्री चुपचाप उसे अंदर ही अंदर घुट कर सहती रहती है और अपने इस जीवन को पार करने का प्रयत्न करती है और प्रतिक्षण अपने परिवार किस सुख की कामना करती है। किंतु ईश्वर से प्रार्थना करती है कि उसका अगला जन्म स्त्री ना हो। और अगर स्त्री हो तो पुरुष प्रधान समाज में ना हो।

प्रत्येक पुरुष प्रधान समाज से मैं विनती करती हूं की स्त्रियों के प्रति अपनी संकीर्ण और रूढ़िवादी विचारधारा को समाप्त करें। स्त्रियों को एक उचित सम्मान दें उनको उचित स्वतंत्रता दें। उनके साथ न्याय करें अन्याय ना करें। उनमें मानसिक मनोविकारों का समावेश ना करें। स्त्री को परखने की जगह उनके समर्पण और प्रेम की पराकाष्ठा को समझने का प्रयत्न करें। उन्हें उनकी क्षमताओं को परखने की स्वतंत्रता दे।एक स्त्री यदि प्रसन्न रहेगी तो वह अपनी और अपने परिवार की प्रगति करेगी । उचित मर्यादाओं का पालन करते हुए, आपका, आपके परिवार और समाज का नाम रोशन करेगी। पुरुषों की स्त्रियों के प्रति दुर्बल और नकारात्मक मानसिकता को अब बदलाव की जरूरत है। तभी वह पुरुष प्रधान समाज प्रगति की ओर अग्रसर होगा।

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