“मैं आज तक नहीं समझ पाई”
डॉ प्रतिभा जवड़ा
क्यूं स्त्री को खुलकर जीवन जीने की आजादी नहीं है,
यह कैसा जीवन है मैं आज तक नहीं समझ पाई….
क्यूं सुरक्षा के नाम पर उसके पैरों में बेड़ियां डाली जाती है,
यह कैसी सुरक्षा है, मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं खुलकर अपनी बात प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं है,
यह कैसा समन्वय है,मैं आज तक नहीं जान पाई….
क्यूं एक विधवा को फिर से एक नई जिंदगी जीने का अधिकार नहीं ,
यह कैसा विधान है,मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं अपने अंतर्मन की वेदना किसी को प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं
यह कैसी विडंबना है,मैं आज तक नहीं समझ पाई….
क्यूं हर एक परिस्थिति में गुनहगार औरत ही बनती है,
यह कैसी अदालत है,मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं औरत घर के सारे काम करके कमाने जाए और लौट कर भी सारे काम करें,
यह कैसी व्यवस्था है,मैं आज तक नहीं जान पाई…..
क्यूं कोई स्त्री स्वतंत्रता से अपनी सांस भी नहीं ले पाए,
यह कैसा वातावरण है,मैं आज तक नहीं समझ पाई….
क्यूं घर की सारी जिम्मेदारियां सदा सदा से अकेली औरत के कंधों पर
यह कैसी व्यवस्था है,मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं हर बार औरत को ही दबाया जाता है,
यह कैसा नियंत्रण है,मैं आज तक नहीं जान पाई….
क्यूं कोई स्त्री अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाती है
यह कैसा न्याय है,मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं पुरुष के द्वारा किसी अबला के साथ गलत करने पर दबाया हर हाल में औरत को ही जाता है।
यह कैसा अत्याचार है, मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं शादी करके लड़की ही लड़के के घर जाए और साथ में दहेज भी ले जाए,
यह कैसा व्यापार है, मैं आज तक नहीं समझ पाई….
क्यूं एक बहू ही ससुराल के सारे नियम, कानून, कायदे निभाए,
यह कैसा रिश्ता है, मैं आज तक नहीं जान पाई…..
क्यूं औरत को अपने ही मायके जाने के लिए ससुराल से अनुमति लेनी पड़ती है,
यह कैसा बंधन है, मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं नारी को घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियां निभाने और अपना सारा समय देने के बाद भी,
उसे उसका उचित मानदेय नहीं मिलता,
यह कैसा रोजगार है, मैं आज तक नहीं समझ पाई…..
क्यूं बेटे के बदले में बेटी लेना और साथ में पैसा और दहेज भी,
यह कैसा व्यापार है,मैं आज तक नहीं जान पाई…..
लेकिन आज मैं सब कुछ समझना और जानना चाहती हूं….
मैं अपने साथ न्याय चाहती हूं ,अपना मानदेय चाहती हूं…..
यह फ्री का व्यापार नहीं, रिश्तो का आधार है……
मैं घर और बाहर की जिम्मेदारियों में बराबर का हिस्सा चाहती हूं….
मैं अपनी स्वतंत्रता चाहती हूं….
शोषण मुक्त जीवन चाहती हूं….
एक स्वच्छ वातावरण चाहती हूं…
क्यूं की मैं इंसान हूं ,रोबोट नहीं और यह मेरा अधिकार है,
मेरे जीने का आधार है!!
डॉ प्रतिभा जवड़ा
साइकोलॉजिस्ट एवं सोशल एक्टिविस्ट
हिंदी लेखिका एवं कवियित्री