“पत्नी पतिव्रता या पतिता”

डॉ. प्रतिभा"प्रिया"

मैं ‘पत्नी’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘पति’ को पतन से बचाती हूं। उन्हें गिरने नहीं देना मेरा धर्म है।
मैं ‘भार्या’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘भरतार’ की अभिलाषा हूं। उनकी इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है।
मैं ‘वामा’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘वल्लभ’के मन को हर लेती हूं। उनके मन को मोहना मेरा धर्म है।
मैं ‘वधू’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘वर’ को दूल्हा बनाती हूं। उनमें नवजीवन का संचार करना, उनके जीवन को स्वर्ग बनाना मेरा धर्म है।
मैं ‘गृहिणी’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘गृह स्वामी’ के घर की प्रभारी हूं ‌। उनके घर कि जिम्मेदारियां संभालना मेरा धर्म है।
मै ‘सहभागिनी’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘सहभागी’ के हर काम में समान रूप से सहयोगिनी हूं। उनके धर्म-कर्म में सहकर्मी बनना मेरा धर्म है।
मैं ‘प्रिया’हूं क्योंकि मैं अपने ‘प्रियतम’ कि प्रिय हूं। उनके प्रेम का प्रतीक हूं। उन्हें अपने प्रेम से प्रसन्न रखना मेरा धर्म है।
मैं ‘नारी’ हूं क्योंकि मैं अपने ‘नर’ का आंतरिक बल हूं। आधा अंग हूं मैं।उन्हें कमजोर ना बनाना मेरा धर्म है।
मैं बेगम हूं क्योंकि मैं अपने ‘शौहर’ की रानी हूं। उन्हें राजा बनाए रखना मेरा धर्म है।
मैं कांता हूं क्योंकि मैं अपने कांत की प्रेमिका हूं। उन्हें प्रेम करना, कभी अपमान न करना मेरा धर्म है।
मैं प्राणेश्वरी हूं क्योंकि मैं अपने प्राणेश्वर के प्राणो का आधार हूं। उनके प्राणों की रक्षा करना मेरा धर्म है।

लेकिन यह सब तभी संभव है जब तक मेरा अस्तित्व, मेरा मान सम्मान, मेरा वजूद कायम है। अन्यथा इन सब की‌ मैं पूर्णतया विपरीत भी हूं। मुझे अनुकूल बनाना मेरे पति का परम धर्म है।

 

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