आज न जाने क्यों….

उदास है मन
किसी की चाह में,
थक गयीं आँखे
तकते किसी की राह में।

यूँ तो आसमान तारों से भरा है
पर न जाने क्यों..?
खाली प्रतीत हो रहा है
जैसे उसका चाँद उससे रूठ गया हो
और असंख्य तारे भी
उस कमी को पूरी न कर पा रहे हों।

शिकवा है उसे चांद से
या खुद से
कमी है इसमें
चांद की या खुद की

अब कौन समझे और किसको समझाये
किससे समझे और किसको बतलाये,
ये प्रीत का रिश्ता ही कुछ ऐसा है।

क्या सचमुच रिश्ते रेशम की डोर जैसे होते हैं …?
अगर हाँ …
तो इनको मजबूत भी तो हम ही
बनायेंगे न,
रुठेगा जो कोई एक दूजे से
तो हम ही मनाएंगे न,
गिले शिकवों को दूर कर
इन रिश्तों को मुकम्मल नाम दे दें
आओ दो पक्षियों के उड़ने को
खुला आसमान दे दें
किनारे कर सारी मुसीबतों को बस एक नया जहान दे दें।

लवी सिंह

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