Exclusive Interview: फिल्मों से ग़ज़लों का लोप होना बहुत दुखदाई है : शिव कुमार बिलगरामी

मूर्धन्य शायर ने अफ़सोस जताते हुए कहा, अब साहित्य सृजन का ध्येय पद, पुरस्कार, धन और यश प्राप्ति की कामना है

By SHRI RAM SHAW

नई दिल्ली। “मौसिकी तू चीज़ है ऐसी सदाबहार/ मिलता है जिससे रूह को चैन, दिल को करार।” उनके गीतों में संगीत की सरिता प्रवाहित होती है। उनकी रचनाएँ मानव जीवन की मधुर सहगामी हैं जो विविध भावों को साज से साधती हैं। उनकी रचनाओं ने मनुष्य के अन्तरबाह्य जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया है। मूलतः गीत और ग़ज़ल विधाओं में काव्य सृजन करने वाले जाने-माने गीतकार और शायर शिव कुमार बिलगरामी किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वह आज के दौर के ऐसे गीतकार और शायर हैं जिनकी रचनाओं को देश-विदेश के कई मशहूर गायकों ने अपनी सुरमई आवाज़ की जादू से संवारा है।

कैलाश खेर, शान, अभिजीत, सुरेश वाडेकर, अनुराधा पौडवाल, साधना सरगम, के एस चित्रा, जसपिंदर नरूला, हेमा सरदेसाई, महालक्ष्मी अय्यर जैसे बॉलीवुड के मशहूर गायकों के अलावा शाद ग़ुलाम अली (पाकिस्तान), पंडित अजय झा (अमरीका), राजेश सिंह, उस्ताद रियाज़ खान (मुंबई), कृष्ण कुमार नायक, ओम प्रकाश श्रीवास्तव, सतीश मिश्रा, निशांत अक्षर, सरिता, राजेश कुमार सिंह, अमरीश धवन, कालू सिंह ‘कमल’ तथा आख्या सिंह जैसे आज के मशहूर ग़ज़ल और भजन गायकों ने शिवकुमार बिलगरामी द्वारा कलमबद्ध की गयी रचनाओं को स्वरबद्ध किया है।

श्री राम शॉ के साथ एक विशेष भेंटवार्ता में उन्होंने कविता, ग़ज़ल, स्तरीय लेखन/ रचनाओं के ह्रास, फिल्मों से ग़ज़लों का लोप सरीखे कई अहम विषयों पर विस्तार से अपने विचारों को साझा किया।

प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश…

आप एक सुविख्यात कवि और शायर हैंI एक अच्छी कविता अथवा एक अच्छी ग़ज़ल को आप कैसे परिभाषित करेंगे ?

कविता और ग़ज़ल में काफी फर्क है। कविता मूलतः हिंदी काव्य लेखन से जुड़ी है, जबकि ग़ज़ल उर्दू और हिंदुस्तानी ज़बान में कही जाती है, हालांकि अब इसे हिन्दी काव्य लेखन में भी बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है। कविता में छंद बद्ध कविता और छंद मुक्त कविता दोनों शामिल हैं। इसलिए इसकी विषयगत व्यापकता बहुत अधिक है। कविता में मूलतः कथन पर जोर दिया जाता है।
वर्तमान में कविता का तात्पर्य छंद मुक्त कविता से लगाया जा रहा है और इसमें विचार प्रमुख होता है। भाव उतना महत्व नहीं रखता। कविता में सपाट बयानी नहीं है। कथ्य को काफी घुमा फिरा कर कहा जाता है। उसमें एक तरह की बौद्धिक कसरत शामिल है। लेकिन ग़ज़ल कभी भी छंद मुक्त नहीं हो सकती। ग़ज़ल लेखन का अपना एक क़ायदा है। ग़ज़ल को मीटर और बहर के पैमाने पर खरा उतरना होता है। इसके साथ ही ग़ज़ल के विषय बहुत चुनिंदा हैं। ग़मे जानां और ग़मे दौरां से बाहर ग़ज़ल कहना आज भी बहुत मुश्किल से देखने को मिलता है। इसके अलावा ग़ज़ल में कला पक्ष के साथ-साथ भाव पक्ष भी बहुत मजबूत होता है। जो भी ग़ज़लें मक़बूल हुई हैं उनमें उनके भावपक्ष की मज़बूती एक बड़ा कारण रही है। जहां तक अच्छी कविता और अच्छी ग़ज़ल को परिभाषित करने का सवाल है यही कहा जा सकता है कि जो कविता और ग़ज़ल अपने पाठकों तक अपनी संपूर्णता में पहुंच जाए और उस पर अपना असर दिखाए वही कविता अच्छी कविता है और अच्छी ग़ज़ल अच्छी ग़ज़ल है।

दरअसल, ग़ज़ल का हर शेर अपनी जगह मुकम्मल होता है। वो कम शब्दों में बड़ी बात कहने का सलीका रखती है। इस पर कुछ रौशनी डालिए।

जी, आपने दुरुस्त कहा ग़ज़ल का हर शे’र मुकम्मल होता है। मुकम्मल के मानी हैं कि उस शे’र का ग़ज़ल से अलग भी अपना एक आज़ाद वुजूद होता है। किसी कविता या गीत की दो पंक्तियां अलग करके पढ़ी जाएं तो वो उतनी अर्थवान और प्रभावी नहीं रहतीं जितनी संपूर्ण कविता या गीत के साथ जुड़कर होती हैं। लेकिन ग़ज़ल में कहे गए अशआर की एक खासियत है कि वह ग़ज़ल के साथ कहे जाएं या आजाद रूप से उन्हें कहा जाए दोनों रूपों में उनकी अर्थवत्ता और प्रभावशीलता बनी रहती है। देखने में आता है कि कई शे’र आज़ाद तौर पर बहुत मक़बूल हैं, लेकिन वो जिस ग़ज़ल से हैं उस ग़ज़ल के बारे में लोगों को बहुत जानकारी नहीं है। दरअसल, ग़ज़ल में ऐसी कोई क़ैद नहीं होती कि उसका हर एक शेर आपस में कनेक्ट ही होना चाहिए। ग़ज़ल के हर शेर में एक आज़ाद ख़याली हो सकती है और इससे उसकी ख़ूबसूरती बढ़ती है। हर शेर में एक अलग विषय लिया जा सकता है। लेकिन ऐसी ग़ज़लें गाने के हिसाब से बहुत माक़ूल नहीं होतीं। गाने के लिए अमूमन उन्हीं ग़ज़लों को लिया जाता है जिनके सारे शे’र एक विषय पर केंद्रित होते हैं। ग़ज़ल लेखन की एक और ख़ूबी यह भी है कि इसके छंद विधान के कारण इसमें बहुत अधिक कसावट रखनी पड़ती है। कसावट का तात्पर्य है एक भी फ़ालतू शब्द इस्तेमाल करने से बचना होता है। ग़ज़ल के किसी भी शे’र से अगर कोई शब्द हटाया जाए या वहां पर कोई दूसरा शब्द लाया जाए तो उसका अर्थ बदल जाता है। इसीलिए शायर अपनी ग़ज़लों में एक-एक शब्द को बहुत नापतोल कर रखता है। ग़ज़ल में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं रखी जाती कि उसके शब्दों में हेरफेर किया जा सके। इसी को गागर में सागर भरना कहते हैं।

अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आजकल स्तरीय लेखन/ रचनाओं का ह्रास होते जा रहा है। आप इससे कितना सहमत हैं ?

स्कूल के दिनों में हमारे इम्तिहानों में जिन विषयों पर निबंध लिखने को दिए जाते थे उनमें एक विषय बड़ी प्रमुखता से दिया जाता था – साहित्य समाज का दर्पण है। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है। साहित्य अपने काल के समाज को प्रतिबिंबित करता है। समाज में जब सभी क्षेत्रों में पतन और ह्रास देखने को मिल रहा है तब साहित्य भी इससे अछूता नहीं रह सकता, हालांकि मेरा मानना है कि साहित्य के क्षेत्र में ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए। साहित्य का काम ही विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों में समाज का मार्गदर्शन करना है। लेकिन बाजारवाद का असर साहित्य पर भी दिखाई दे रहा है। साहित्य लेखन का ध्येय बदल गया है। जितना भी कालजयी साहित्य सृजित हुआ है उसका ध्येय लोक कल्याण और लोक रंजकता रहा है। लेकिन अब साहित्य सृजन का ध्येय पद, पुरस्कार, धन और यश प्राप्ति की कामना है। ध्येय बदलने से दृष्टि भी बदली है। यह एक तरह से आत्म केन्द्रित हो गई है। इसी कारण आमतौर पर अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन इसके अपवाद भी हैं। जिन साहित्यकारों ने अपनी दृष्टि को व्यापक और जन केंद्रित रखा है वो आज भी अच्छा साहित्य लिख रहे हैं।

यहाँ तक कि फिल्मों से भी ग़ज़लों का लोप होता जा रहा है। इसकी क्या वजह हो सकती है ?

फिल्मों से ग़ज़लों का लोप होना बहुत दुखदाई है। सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं फिल्मों से संगीत खत्म होता जा रहा है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज में लोगों की संगीत की ज़रूरत फिल्मों से पूरी हो रही थी। लोक गीत और लोक संगीत लगभग हाशिए पर चला गया था। लेकिन पिछले एक दशक से फिल्मी गीत संगीत भी हाशिए पर चला गया है। इस दौरान शायद ही कोई ऐसी फिल्म आई हो जिसका गीत संगीत आम जनमानस के दिलों दिमाग़ में घर कर गया हो। युवा पीढ़ी का पाश्चात्य संगीत के प्रति रुझान और गानों में लिरिक्स को महत्व न दिए जाने के कारण यह दुखदाई स्थिति पैदा हुई है। लेकिन मैं अपने आसपास अक्सर देखता हूं कि नई पीढ़ी में भी अच्छे लिरिक्स की कद्र करने वाले युवाओं की बहुत बड़ी तादाद है और उम्र दराज़ लोग आज भी भावप्रधान गीत ग़ज़लों को सुनने में रुचि रखते हैं। मुझे लगता है देर सबेर थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ फिल्मों में गीत ग़ज़लों का दौर वापस आएगा।

इसके अलावा आप के दिल की कुछ ऐसी बात जिसे आप हमारे पाठकों से साझा करना चाहते हों ?

एक बात ज़रूर मैं अपने पाठकों से साझा करना चाहूंगा कि आप अपनी पसंद का संगीत सुनिए लेकिन ऐसे संगीत को अपनी पसंद मत बनाइए जो आपके अंदर उद्विग्नता और बेचैनी पैदा करे, जो आपकी भावनाओं को कुंद करे। मनुष्य होने का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही मतलब है हमारे अंदर गहरी संवेदनाओं का होना। यदि हम अपने जीवन से भावनाओं और संवेदनाओं को निकाल दें तो मनुष्यों में और पशुओं में कोई फर्क नहीं रह जाता। जो गीत-संगीत आपकी भावनाओं को आवाज़ न दे सके , जो साहित्य आपके अंदर प्रेम भाव पैदा न कर सके, ऐसा संगीत और साहित्य किसी काम का नहीं। प्रत्येक दिन हमें ऐसी रचना जरूर पढ़नी और सुननी चाहिए जो हमारे अंदर यह भाव और दृष्टि पैदा करे कि ईश्वर की बनाई इस दुनिया में हम अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ नहीं, उनके जैसे ही हैं। सह अस्तित्व और सह जीवन ही मनुष्यता की निशानी है। जो साहित्य यह दृष्टि दे वही श्रेष्ठ साहित्य है।

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