मिलिये कमल काबुलिवाला से
1. एक अनुभवी अभिनेता और निर्देशक के रूप में एकल नाटकों की आप क्या सम्भावनायें और भविष्य देखते हैं?
एकल नाटक सिर्फ पुराने चावलों यानि अनुभवी और मंझे हुए कलाकारों के ही खेल हैं। हिंदुस्तान में बहुत ही कम कलाकार हैं जो एक घंटे तक रूप बदल-बदल कर दर्शकों का मनोरंजन कर सकें। राकेश बेदी (का नाटक मसाज), माया राव (का डीप फ्राइड जैम), मल्लिका साराभाई, जैमिनी पाठक (का महादेवभाई), कुमुद मिश्रा (का शक्कर के पांच दाने), सईद आलम और कुछ अन्य अभिनेता ही रहे हैं जो पूरे मंच का अकेले भरपूर इस्तमाल करते हुए एक दृश्य से दूसरे दृश्य में बखूबी जाते देखे गए हैं। मंच पर एक जगह बैठकर कथा-वाचन करना एक अलग खेला है। उसमें अलग तरह की मेहनत जाती है। और संगीतमय एकल-नाटक एक अलग कलात्मक कृति है।
2. भारत और विदेशों में एकल नाटकों का चलन कैसा है?
99 सामूहिक नाटकों पर एक एकल नाटक देखने को मिलता है। देश-विदेश में एकल नाटकों के उत्सव भी ज़्यादा नहीं रखे जाते और इसका मुख्य कारण ही यही है कि एकल अभिनय करने वाले अभिनेता बहुत कम होते हैं और एकल नाटक छपते भी कम हैं यानि स्क्रिप्ट्स की भी भारी कमी है।
3. इस तरह के नाटक किस तरह के मंचों और दर्शकों के बीच खेले जा सकते हैं?
एकल नाटकों का मंचों और दर्शकों से कोई लेना देना नहीं है। कड़वा सच ये है कि जहाँ आयोजक कलाकारों को कम पैसा दे ज़्यादा अपनी जेब में रखना चाहते हैं तो एकल नाटकों के कलाकारों को खोजने लगते हैं। जहाँ 6 से 12 किरदारों को मंच पर नाटक करने के लिए न्यौता देने के लिए उन्हें एक से ढाई लाख तक देने होंगे वहीँ उन्हें लगता है कि एक एकल कलाकार 20-25 हज़ार में आ जायेगा। जोकि सच नहीं है। नाटक दस किरदारों में किया जाये तो जितना ख़र्च आएगा उसका 60% ख़र्च एक अकेले आदमी के करने पर भी आता है। पर ये बात शायद बहुत से आयोजक समझते हुए भी अपनी गणित एक बटा दस की चलाने की बचकाना कोशिश करते हैं।
4. आपका देश और विदेश में ऐसे मंचनो का क्या तजुर्बा रहा?
हंगरी में अंग्रेज़ी में अभिनय किया। बांग्लादेश में बांग्ला में। और जर्मनी में जर्मन भाषा में। विदेशों में नाटक-मंडली के तौर पर बुलाये जाना तो जैसे नामुमकिन सी बात है। सबसे पहले आयोजक थिएटर कंपनी में कितने कलाकार हैं ये जानना चाहेगा, उनके अलावा और कितने लोगों को तकनीकी टीम के तौर पर यात्रा करनी होगी। ये सब लाज़मी से सवाल होते हैं एक साधारण सा हिसाब करने के लिए कि पूरी मंडली को बुलाने में खर्चा कितना आएगा।
5. आपने कहाँ-कहाँ कौनसे एकल नाटक और उनके कितने प्रदर्शन किये हैं?
मैंने अब तक लगभग डेढ़-सौ से ऊपर मंचों पर 12 एकल नाटकों के लगभग 300 शो किये हैं, जोकि 12 राज्यों में, 20 से ऊपर शहरों में और 3 देशों में हुए जिनमे भीष्म साहनी की कहानी चकला जिसमे 26 किरदार हैं और सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह” है, जिसमें 18 किरदार मैं अकेले निभाता हूँ। इनके अलावा बच्चों के लिए कुछ 10 ख़ास नाटक जैसे शेख-हबीबी, मुल्ला-नसरुद्दीन, काबुलीवाला, कन्फूज़ड-भगवान, आईना, बहरूपिया, ब्लू-कंगारू, बाघ का बच्चा, ब्रूनो-बहादुर, मियां की टोपी मियां के सर, भूत-घुड़सवार, और मनमौजी-और-नवाब शामिल हैं।
6. क्या सोलो प्लेज़ रंगमंच की अभिनेत्रियां ज़्यादा करना पसंद करती हैं? आपका अनुभव क्या कहता है?
देखिये जैसा मैंने कहा कि चाहे अभिनेता हो या अभिनेत्री, मंच को एक से दो घंटे तक अकेले संभालना और 100 से हज़ार दर्शकों को पूरे समय अपनी और अपनी कहानी, मंच-सज्जा, वेशभूषा और संगीत से आकर्षित रखना एक तरफ कई अभिनेताओं को बड़ा ही जोखिमभरा काम लगता है, दूसरी तरफ कुछ-एक अभिनेताओं को इस जोखिम को उठाकर दर्शकों को अकेले लुभाने में बड़ा आनंद आता है।
चाहे अभिनेता हो या अभिनेत्री जिसे भी एकल प्रदर्शन करने में मज़ा आने लगता है वो जैसे मर्ज़ी करके एक उम्दा कहानी ढूंढ ही लेते हैं और जुट जाते हैं उसे बनाने में। जिन्हें ये काम जोखिम भरा लगता है वो एक उम्दा कहानी और नाटक न मिल पाने का बहाना बनाकर टाल देते हैं। कुछ हद तक बात सही भी है कि एकल नाटक कम ही लिखे जाते हैं और अभिनेता या अभिनेत्री के लिए चयन कर पाना कठिन भी होता है।
7. एक्टर की आसानी के लिये सोलो नाटकों के लेखन में क्या ध्यान रखा जाना चाहिये।
अगर सोलो-प्ले करना आसान होता तो हर सभागार में हो रहा होता। है कि नहीं? इसमें कोई आसानी नहीं। लेखक ने जो लिखना है वो अपने हिसाब से लिखेगा नाकि कलाकार की सहूलियत के हिसाब से। जिस कलाकार को जचेगा वो खुद उस स्क्रिप्ट को करने के लिए उठा लेगा। जिसे मुद्दा नहीं जचेगा वो अगला पढ़ने में लग जायेगा और तब तक पढता और खोजबीन करता रहेगा जब तक उसे अपनी पसंद की स्क्रिप्ट नहीं मिल जाती।
8. आप नाटक अनुवादित करते हैं। जर्मन हिंदी और अंग्रेज़ी में। आप कितने नाटक अनुदित कर चुके हैं?
मेरे 10 अनुवादित कामों में मुख्य हैं नाटक सैमी, मछँदर, मंडप, स्पघेटी विद केचप, टीन का सिपाही और कागज़ की नचनियां, मोटी चमड़ी वाला और चकाचौंध। इसके अलावा मिस्टेक, कैटस्ट्रोफी, लोरियो के लघु नाटक, टीवी धारावाहिक लव इज़ इन द एयर और बॉलीवुड फिल्म चमेली ।
9. भाषान्तरण में आप किन बातों का ख़याल रखते हैं?
हर अनुवाद करते वक़्त मैं अपने दर्शकों के चेहरों पर आने वाले भावों को ध्यान में रखते हुए एक-एक वाक्य लिखता हूँ। अनुवाद एक बेहद कठिन काम है। अनुवाद करने से पहले खुद बहुत पढ़ना होता है। मैंने कुछ 250 से ऊपर नाटक पढ़े हैं और 900 से ऊपर देखे हैं। और हमेशा यही सुझाव देता हूँ कि व्यंजन बनाने से पहले खाना सीखें। स्वाद लेना सीखें। जिस तरह पापड़ को करकरा बनाने के लिए छत पर धूप में सुखाना पड़ता है उसी तरह अनुवाद को भी पकने का समय चाहिए होता है।
10. हिंदी में जो नाटक अनुवाद किये गए हैं, वे आपको कैसे लगते हैं? क्या कमियां दिखाई देती हैं?
मैं 17-18 साल का था जब मंडी-हाउस में स्थित साहित्य कला परिषद् के पुस्तकालय, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पुस्तकालय तुलसी-सदन और श्री राम सेंटर में बैठ 200 से ऊपर हिंदुस्तानी और विदेशी नाटक पढ़ गया था। दिन में एक से ढाई नाटक पढ़ने का लक्ष्य और औसत थी। इसीलिए हिंदी अच्छी है और इसीलिए ही खुद को अनुवादक के तौर पर प्रस्तुत कर पाता हूँ।
अब आते हैं आपके सवाल पर। मुझे शेक्सपियर बिलकुल भी पसंद नहीं और इसका श्रेय जाता है अनुवादक द्वारा किये गए हिंदी के अनुवादों को। उस दौर में मैंने शेक्सपियर का नाम बहुत सुना था और बड़ी जिज्ञासा थी कि जाना जाए कि ये भाई कौन था। उन दिनों अंग्रेज़ी उतनी आती नहीं थी तो मैं बड़ा खुश हुआ जब किताबघर में शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद हिंदी में मिले। उन्हें जब पढ़ने लगा तो ऐसा लगा जैसे करेले का रस पी रहा हूँ। न जाने कैसी अजीबोगरीब हिंदी में अनुवाद किया गया था कि शेक्सपियर से मेरा मन ही हट गया।
जब भी मैं अनुवाद करता हूँ तो मैं अपना वो तजुर्बा याद कर खुद को धमका दिया करता हूँ जिससे मेरी अनुवादित किताबों के पाठक भी मुझे कभी इस तरह गालियां न दें। अब आते हैं अच्छे उदाहरण पर। प्रतिभा अग्गरवाल ने बादल सरकार के काफी सारे बंगाली नाटकों का अनुवाद हिंदी में किया है जैसे प्रचलित नाटक “बड़ी बुआजी” का । आप उनके नाटक पढ़ेंगे तो आपको बिलकुल नहीं पता चलेगा कि नाटक की मूल भाषा हिंदी नहीं बल्कि बंगाली थी। इसे कहते हैं बेहतरीन अनुवाद की पहचान।
11. आप खुद कितने नाटकों में अभिनय कर चुके हैं कितनों को निर्देशन किया है? कितने सालों से रंगकर्म कर रहे हैं। क्या यही आपका जीवन है?
1999 से यानि पिछले 24 सालों से लगातार नाटक कर रहा हूँ। और निर्देशक के तौर पर पिछले दस सालों में लगभग 400 से ऊपर कलाकार और अभिनेता काबुलीवाला नाटक कंपनी के साथ काम कर चुके हैं। मेरा आखरी निर्देशित नाटक था “चप्पल की दुकान आगे है” जिसे सैटलाइट तरीके से दिल्ली में बैठकर बैंगलोर की नाटक मंडली के साथ ऑनलाइन तैयार कराया था और मेरे बैंगलोर के अभिनेता बड़ी शिद्दत से जिसके लगातार एक के बाद एक शो करते जा रहे थे कि अचानक अप्रैल 2020 में उसे महामारी के चलते बंद करना पड़ा। नाटक करने की वो गाड़ी जो बंद हुई तब से धीमी ही पड़ी है। और हमें भी कोई मलाल नहीं है। इसे मिलाकर कुछ 9 नाटकों का निर्देशन किया है जिनमें “आदाब मंटो साहब”, लाली, गॉसिप्स ऑफ़ 47, गॉड्स कॉल सेंटर, बॉम्ब ब्लास्ट, मिस्टेक, कैटस्ट्रोफी, शेख हबीबी का इन्साफ, जंगल में आग लगी जैसे कुछ अन्य नाटक शामिल हैं ।
मैं साल के बारह महीने थिएटर कंपनी चलाना पसंद नहीं करता। इसलिए पिछले 10 सालों से साल में एक बार एक नाटक उठाता हूँ और अगर चल जाए तो रुकता नहीं हूँ। चलाये चलता हूँ। पर अगर न चले या सही समय पर मंचन करने के न्यौते न आएं तो बंद कर देता हूँ। भाई साहब नाटक करना एक महंगा शौक है, गोल्फ खेलने से भी महंगा। जिस दिन ये बात लोग समझ गए तो खेल बदल जायेगा।
12. आपकी ड्रामा कम्पनी ने आपके कितने और कौनसे अनुवादित नाटकों के मचंन किये हैं?
जहां तक बात मेरे अनुवादित नाटकों के मंचन की है तो वो सारे नाटक सिर्फ मेरे लिए नहीं हैं बल्कि और निर्देशक भी उन्हें करें यही लक्ष्य है और उनका स्वागत है। और अगर कोई निर्देशक किसी निश्चित जर्मन या अंग्रेज़ी नाटक का हिंदी में अनुवाद करवाना चाहता है तो भी बेझिझक वे मुझसे संपर्क कर सकते हैं।
13. आपकी शिक्षा क्या है? आपकी ट्रेनिंग कहाँ हुई।
मैं गुरु शिष्य परंपरा में सीखने और सिखाने में विश्वास रखता हूँ। मैंने अब तक 16 से ऊपर गुरुओं से सीखा है जिनमे के. एस. कलसी, माया राव, अनमोल वलानी, अनीश विक्टर, प्रीतम कोयलपिल्लई, सुरेंद्र शर्मा, सुरेश भारद्वाज, डॉ, म सईद आलम, मथुरा कलौनी, राजेश तिवारी, दीपक गुलाटी, पद्मावती राव, विजय पदकी, क्रिस्टोफर रोमान,पी डी सथीश चंद्रा, हरविंदर कौर बबली और कीर्तना कुमार शामिल हैं। एकल नाटकों की दुनिया में उतरने से पहले मैंने इन निर्देशकों के निर्देशन में कुल 20 सामूहिक नाटकों में अभिनय किया जिनमे आजा पंछी अकेला है, ज़रूरत है श्रीमती की, दाल में काला, आवरण, मुआवज़े, ताज महल का टेंडर, कोर्ट मार्शल, खेल, कफ़न, ग़ालिब, मोलियर अलाइव, मिस्टेक, कैटस्ट्रोफी, 5 लघु कन्नड़ नाटक और दो पंजाबी नाटक शामिल हैं।
मैं श्री राम सेंटर एक्टिंग स्कूल का ड्राप-आउट हूँ। और ये बताने में मुझे कोई अफ़सोस नहीं है। कोई भी प्रमाण-पत्र हमारे जीवन में हमारे सपनों की दिशा को निर्धारित नहीं करता। हम किस गुरु से क्या सीखते हैं और उस गुरु को गुरु-दक्षिणा के रूप में आदर सम्मान देते हैं ये हमारे भविष्य की दिशा और मंज़िलों को ज़रूर निर्धारित करता है।
14. पिछले कुछ समय की क्या कलात्मक उपलब्धि रही?
2021 में तीन जर्मन नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया और 2022 में तीन महीने बर्लिन में रहकर एक अंतर्राष्ट्रीय टीम के साथ ओपेरा थिएटर करने का मौका मिला, “मेक्सिको औरा” नामक इस संगीतमय नाटक की आठ हॉउसफुल प्रस्तुतियां हुई।
15. आजकल आप क्या कर रहे हैं?
देखिये करोना ने कलाकारों की पीठ पर जो लात मार कर उन्हें गिराया था उन लाखों कलाकारों की सूची में मैं भी था। और एक कलाकार को सालों लगते हैं एक स्तर और चाल पाने में जो सारी की सारी चली गयी। मैं बच्चों के एक नए नाटक पर काम कर रहा हूँ जिसका नाम है “मोटी चमड़ी वाला”, मुझे उम्मीद है ये नाटक जनता के बीच चर्चा का मुद्दा बनेगा। मोटी चमड़ी वाला एक हास्यास्पद और प्रफुल्लित करने वाला 45 मिनट का एक बेहद लाजवाब नाटक है जिसमें स्कूलों और कॉलेजों में खिल्ली उड़ाने और दादागिरी करने जैसे अति संवेदनशील विषय पर एक रेखांकित संदेश दिया गया है। आप देखेंगे कि रघु की कहानी का कौनसा किरदार आपके बचपन की कहानी से कितना मिलता जुलता है। यक़ीनन आपको भी अपना बचपन और स्कूल के दिन याद आ जायेंगे।
16. नाटकों की दुनिया के परे आप और क्या करते हैं?
मैक्स म्युलर भवन में जर्मन पढ़ाता हूँ, स्टॉक मार्केट ट्रेडिंग करता हूँ, इंस्टाग्राम की रीलें बनाता हूँ, कुत्तों को बिस्कुट खिलाता हूँ, चिड़ियों को दाना, पौधों को पानी पिलाता हूँ और साइकिल चलाता हूँ। बोले तो जीवन में जहाँ से माया और आनंद आये बटोर लेता हूँ।